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रोजमर्रा के मसले और उनके संभावित समाधान

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कमल जीत

गणित में निल बटे सन्नाटा रहने के बावजूद मेरी इंजिनीयरिंग में रुचि बराबर बनी रही मैंने ऐसे दोस्त ढूंढ लिए जो दीवार की चिनाई करने से लेकर रेडियो स्टेशन को सूट केस में पैक करके कहीं भी ले जा कर उसे शुरू करने लायक बनाने में सक्षम थे।

सांख्यिकी के पेपर में तीन नम्बर आये थे तो अध्यापक महोदय ने ने मेरी गैरत को जगाने के लिए क्लास के सामने ही मेरे से पूछा था कि इन तीन नम्बरों से तेरा काम जीवन में कैसे चलेगा तब मेरे मन में एक बात आई और वहीँ बात मैंने अध्यापक से कह दि कि मैं अपना काम जो ये 97 नम्बर लिए बैठा से करवा लूंगा।

सारे काम मैं खुद ही थोड़ी ना करने प्रयास करूँगा अध्यापक महोदय भी समझ गयी जिस बिल्डिंग की पांच मंज़िल से आगे कोई कंस्ट्रक्शन ही नहीं है वहाँ चौदहवीं मंज़िल बनाने का प्रयास निरर्थक ही है।

उसने अपनी और मेरी समस्या को सुलझाते हुए मुझे आगे बढ़ा दिया।

खैर मास्टर्स डिग्री करके जब फील्ड में उतरा तो चार साल ले बाद NISTAD द्वारा संचालित ट्रेनिंग एंड डेवेलोपमेंट के डिप्लोमा में दाखिला ले लिया और वहाँ जा कर समझ मे आया कि तुझे तो कुछ आता ही नहीं है।

उसके अगले कई साल कानून की पढ़ाई में लगे और अब जा कर मुझे समझ आया है कि हमारा देश तो मर्यादा से चलने वाला देश है इसे कानूनों से ठेलने का प्रयास बेकार में ही किया जा रहा है। आजतक कानून मोटर साईकल सवारों से हेलमेट नहीं पहनवा सका है जबकि पंडित जी जैसे ही तिलक लगाने को हाथ बढाते हैं जीव अपना हाथ सरपर रख लेता है। कानून को छाप कर उसके गैजेट नोटिफिकेशन से कुछ नहीं हो सकता है जब तक उसे संस्कारों में घोल कर देशवासियों के दिलों में ना सींचा जाए।

अब आजकल मैं इंफ्लेशन जैसे मुद्दे पर गुणी जनों से बात करने में लगा हूँ।

मुझे लगता है कि करंसी की स्टेबिलिटी मानव सभ्यता के लिए बेहद बेहद जरूरी हैं। इंफ्लेशन का कंसेपट बना के सत्ता धारियों ने पूरी जनता को एक अंधी दौड़ में लगा दिया है।

हर कोई परेशान है क्योंकि उसके कमाए हुए पैसे हर रोज कम हो जाते हैं। ऐसी करंसी हमने क्या करनी है भला। पच्चीस साल कालेज यूनिवर्सिटियों में धक्के खाने के बावजूद जब व्यक्ति देश समाज में कंट्रीब्यूट करने हेतु काम शुरू करता है तो उसे मालूम चलता है कि अनगिनत जरूरी बातें उसे बताई ही नहीं गयी।

जैसे बैंकिंग के नियम क्या हैं, इंवेस्मेंट क्या होती है, बीमे कितनी तरह के होते हैं, ESI, TDS, EPFO आदि क्या होते हैं।

एक दशक लगता है इस मकड़ जाल को समझने में।

डेढ़ दशक में यार बेलियों से खूब सारे सवाल पूछने के बाद मुझे यह लगता है कि पुराने समयों में हमारे देश में गाय भी एक करंसी थी।

जब राजा किसी से प्रसन्न हो जाता था तो उसे गाय दान में दिया करता था। गुरुकुलों को भी हज़ारों गाय दान में देने की कथाएँ और उदहारण प्रचलित हैं।

गाय सैदेव बढ़ती रहती हैं उसका अवमूल्यन कभी नहीं होता है। प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता (चारागाह) जबतक रहेगा तब तक गाय की संख्या बढ़ती रहेगी और लोगों को आर्थिक रूप से गुलाम बनाना संभव नहीं है।

चारागाह पर ही नीति के द्वारा अटैक करके पशुओं को पहले बैंकों से जोड़ा और अब कॉमोडीटी घोषित किये जाने के मुहाने पर हम खड़े हैं। व्यवस्था द्वारा एक बार कॉमिडीटी घोषित हो जाने के बाद हमारी चेतना और पशुओं के प्रति रवैये में भयंकर गिरावट आ जानी निश्चित ही है।

धीरे धीरे हमारा समाज कबूतरखानों में शिफ्ट हो जायेगा जिनके बड़े सुंदर नाम होंगे। कहने को अट्टालिकाएं होंगी लेकिन उनमें जीवन का रस पूरी तरह से अलग ही कलेवर और फ्लेवर लिए होगा।

आज हम जिस GDP को देख कर इतना कूद रहे हैं उसमें से 68% हमारी खपत का नतीजा है। हमारा देश खपत आधारित एकॉनोमी है।

मैंने एक दिन कहीं सुना कि वर्ल्ड बैंक की किसी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के किसान की आय 27 रुपये प्रतिदिन है और उस पर रौला कटना शुरू हो गया।

मेरे बात जंची नहीं एक दिन मुझे वर्ल्ड बैंक वाली बहन जी मिल गयी और मैंने उससे पूछ ही लिया कि आप लोग किसान की आमदनी 27 रुपये किस हिसाब से बताते हो।

वो बोली कि सिंपल है वो 27 रुपये का समान हमारी कॉर्पोरेशनों से खरीदता है। उसके पास 27 रुपये हैं तो तभी तो वो हमारा समान खरीदता है और हम उसकी आमनदनी 27 रुपये मान लेते हैं।

जब वो पचास का खरीदेगा हम उसकी आमदनी पचास मान लेंगे।

मेरे मन से आवाज आई कि थारा नास जाओ

उसने घर में अनाज फल सब्जी दूध पैदा किया उसे बेचा उसकी कोई आमदनी नहीं। उसने बढ़िया साफ़ पानी पिया, नीम के नीचे खाट डाल के घंटों सोया हुक्के की मौज लूटी नाचा गाया वो कहीं गिनती में नही आता।

बस जो हमारी दुकान से समान खरीदेगा तो ही हम उसकी आमनदनी का अंदाजा लगाएंगे।

ऐसे सिद्दांतों पर हम क्रांति करते घूम रहे हैं तभी तो हम लगातार पीछे होते जा रहे हैं।

ढंग की कोई बात सिलेबस में है ही नहीं।

बंदा कुछ भी पढ़ लिख जाए कुछ भी बन जाए उसको लगातार दौड़ते ही रहना पड़ेगा।

त्याग सेवा और बलिदान हमारे जीवन के क्लच ब्रेक और रेस होते हैं सिर्फ इनपर कमांड विकसित करके ही लगातार ढहते हुए जगत के साथ थोड़ा तालमेल बैठाया जा सकता है।

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