आजकल बात बात पर ब्राह्मणों / पण्डितों को कोसना बेहद आनंददायक और फेवरेट कार्य है। कई बार मुझे पढ़ने को मिलता है कि हम तो कोई मुहूर्त महारात नही निकलवाते किसी पंडित वण्डित से। सब पाखण्ड ही तो होता है। सब बकवास है। पिछड़ेपन का इंडिक्टर ही तो है पंडित से मुहूर्त पूछना।
आज हम सभी एक नए दौर में जी रहे हैं जहां फैमिली के नाम पर बस मां बाप और एक आधा बालक या बालिका होते हैं। समय देखने के अनेकों ऑप्शंस हैं और तेजी से आने जाने के भी भतेरे साधन है। ना परचेज पॉवर की कमी है और ना समानों की। सामान घर पर ही डिलीवर हो जाते हैं।
पुराने जमाने यानी अब से चालीस पचास साल पहले ऐसा ना था और दो सौ पांच सौ साल पहले तो स्थिति और भी अलग होती थी।
तब एक एक परिवार में दस बारह तो सगे भाई बहन ही हुआ करते थे फिर पिता के भाई बहन अलग और माता के भाई बहन अलग। दादा दादी के भाई बहन भी हुआ करते थे। फिर कुनबा और आगे ठौला, पाना और पात्ति, गाम गुहाण्ड आदि बहुत सामान हरेक परिवार के पीछे खड़ा रहा करता था।
खुशी और गमी दोनों में इतना सांग सौदा पार्टनर हुआ करते थे। ऐसे माहौल में यदि कोई शुभ कार्य करना है जिसमें व्यवस्था बना कर रखनी है और सभी सामाजिक नियम कायदे रीति रिवाज परम्पराएं आदि मनानी हैं तो उसके लिए सबसे पहला काम है “कब” यानी समय।
मनोविज्ञान का नियम है कि मनुष्य हायर कमांड को फॉलो करता है। समाज मे यदि बराबर के स्टेट्स वाले रिश्तेदार नातेदार बैठ कर किसी समय का निर्धारण करने लगें तो हरेक का अपना पॉइंट ऑफ व्यू होगा और उसका निर्धारण करते करते दो चार लोग तो नाराज हो ही जायेंगे पक्की बात है। किसी को यकीन ना हो तो कभी आजमा के देख लीजियेगा कुल तीन जन का परिवार भी एक तिथि का निर्धारण नहीं कर पाता है सभी की अपनी अपनी प्रेफेरेंस और मसले होते हैं।
उस कालखंड में समाज ने यह तय किया कि समय निर्धारण की जिम्मेदारी एक व्यक्ति को दे दी जाए जो परिवार कुनबे से बाहर का व्यक्ति हो। ऐसा व्यक्ति पंडित चुना गया और उसने अपने नेटवर्क में डिस्कस करके एक सटीक पंचांग बनाया और सभी ने मिलकर उसे फॉलो किया यानी वर पक्ष के हाथ मे जो मुहूर्त होगा जब उसे कन्यापक्ष को बताया जाएगा तो उनका पंडित एक मिनट में समझ जाएगा।
सभी शुभ दिन उस समय के क्रॉप कैलेंडर के अनुरूप ही बनाये गए हैं ताकि शुभ कार्य के लिए समय और साजोसामान की भी कोई कमी ना रहे। पंडित ने जो कह दिया फिर उसे मुहूर्त मान कर कोई इफ एंड बट नही किया करता था और पूरा परिवार अपनी तैयारियों में जुट जाया करता था।
आज हम अपने आप को काटते काटते 5 जनों के परिवार पर पहुंच चुके हैं उसमें भी बाप अपने बेटे की शादी में न आये तो कोई बड़ी बात नही है। पहले हमारे समाज मे वर वधू की ही नही अपितु पूरे परिवार कुनबे की आपस मे शादी हुआ करती थी। तभी समाज टिका हुआ था।
हमारे हरियाणा के देहात से जुड़े परिवारों में आज भी यह परंपरा है कि कोई भी व्यक्ति किसी नई जगह खुशी में जाता है तो वहां उपस्थित अनजान महिलाओं से भी पूछता है कि हमारे गोत्र की कोई महिला हो तो उसको वो सम्मान स्वरूप धन माया देकर ही आता है। ये थी जुड़ कर रहने की परम्पराएं जिसकी फाउंडेशन स्यानपंथी से रखी गयी थी।
अब जो हमारे जैसी कटी पतंगे हवा के साथ अपने पतन की ओर निरन्तर बढ़ रही हैं उनका अंतिम संस्कार भी होगा या नही इस बात की कोई गारंटी नही है क्योंकि यह फ्लैटवादी और कोठी वादी संस्कृति को इस्लाम एक सेकंड में गिरा लेगा और फिर आगे क्या होगा वो अफगानिस्तान से आने वाली खबरों को सौ से गुना करके देख सकते हैं।
पंडित का मुहूर्त बकवास नही है वो उस भवन की नीवं की ईंट है जिसकी अटारी पर खड़े होकर हम चबलें मार रहे हैं दिन रात।