न्याय किसी भी सभ्यता की नींव होता है। भारत में जिस सभ्यता को फिलहाल हम जी रहे हैं उसमें बसने वाले बाशिंदों को जब जब न्याय की आवश्यकता पड़ती है तो वो अपनी जरूरत और हैसियत मुताबिक खरीद लाते हैं और अपना काम सा चला लेते हैं।
पंचकुला कोर्ट में आज से दो बरस पूर्व दस रुपये के स्टाम्प की जगह अनउपलब्धता का बहाना बना कर सौ रुपये का स्टांप पेपर एक सौ तीस रुपये का मिलना एक रुटीन सी बात थी। मैंने खुद लिया है।
कहने सुनने का ना तो किसी को प्रोसीजर पता है और ना कोई किसी की सुनता।
कई बरस कानून के अनेकों विषय खासकर लीगल हिस्ट्री को पढ़ कर और वर्तमान दौर के हालात देख कर मुझे एक ही बात समझ में आती है कि हमारा देश तो मर्यादाओं पर चलने वाला देश है इसको कहाँ हम कानून की पटरियों पर जबरदस्ती धकेलने का निष्फल प्रयास कर रहे हैं।
कानून अपना पूरा जोर लगाकर भी आज तक जनता को उसकी सुरक्षा के लिए बना हेलमेट पहनने की सोझी प्रदान नहीं कर पाया है। आज भी हेलमेट सिर्फ इसीलिए पहना जाता है कि चालान बहुत भारी है और खज्जल बहुत होना पड़ता है यदि कोई पकड़ ले तो।
जबकि मैंने अक्सर यह देखा है कि जब किसी भी शुभ अवसर पर पंडित जी या कोई बहन तिलक लगाती है तो नंगे सिर जो व्यक्ति होता है तिलक लगाते समय अपने सर पर अपना हाथ लाकर उसे कजने का जतन करता है।
ऐसा किसी पुस्तक में नहीं पढ़ाया जाता है माँ बाप भी नहीं सिखाते हैं और कहीं लिखा हुआ नियम भी नहीं है और कोई टोकता भी नहीं है चालान का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है फिर यह ज्ञान और समझ कहाँ से फूट रही है जो जन जन में कश्मीर से कन्याकुमारी तक सहज रूप से समान रूप से बिना किसी एफॉर्ट के फैल रही है।
आनुवंशिकी विज्ञान को भी मैंने कई बरस कालेज में पढ़ा है और ज्यादातर तो मैंने सुना है उसके हिसाब से जीनोटाईपिक (DNA वाली) मेमोरीज और फीनोटाईपिक (माहौल वाली) मीमोरीज अगली आने वाली संतति को ज़िप फाइल के तौर पर पहले से ही जन्म के साथ मिलती हैं।
हिंदुओं में अंतिम संस्कार और पिंड दान के समय की जाने वाली पिंड भरवाने की प्रक्रिया एक दम सटीक और वैज्ञानिक है जो जीव को उसके घर परिवार कुनबे ठोले और कुल से आटे की गोलियों को दिखा कर जोड़ कर मिलाकर यह दिखाने का जतन करती है कि तुम कुछ अलग नहीं हो एक जीन पूल का ही विस्तारित फंक्शन हो जिसने वापिस उसी में मिल जाना है। भयंकर दुख से सहज रूप में बाहर निकलने में यह पिंड दान की प्रक्रिया मनो वैज्ञानिक रूप से आला दर्जे का प्रोटोकॉल है। साथ में यह भी सिखाता है कि हमारा सोचना और काम करने का तरीका हमारे पूर्वजों के साथ कैसे लिंक होता है।
मर्यादा और कानून के तुलनात्मक सम्बन्ध का एक और उदाहरण मैंने करोना काल में साक्षात देखा।
जब साल 2020 में करोना फैला तो दुनिया भर में सरकारों को नागरिक सुरक्षा का ध्यान रखते हुए लॉक डाउन नाज़िल करने थे जिसमें उनके पसीने छूट रहे थे।
कानून आधारित संस्कृति से चलने वाले अमरीका समेत यूरोपिये देशों में जब प्रशासन ने लॉक डाउन की बात की तो लोग कोर्ट में चले गए और मुकदमे चला दिये और प्रोटेस्ट के तौर समुद्री बीच पर छुट्टी काटने पहुँच गए।
जिससे करोना बड़ी तेजी से फैला और उमीद से ज्यादा लोग मारे गए।
जबकि अपने देश में क्या हुआ? प्रधानमंत्री जी TV पर आये और एक बार कहा कि हालात खराब हैं बस भीतर बड़ जाओ। देश जहाँ था वहीं का वहीं जाम हो गया।
ऐसा सिर्फ इसी लिए हुआ कि हमारे यहाँ बड़ों की बात मानने की मर्यादा है। जिसका नतीजा क्या हुआ उम्मीद और कयास से बहुत कम लोग यहाँ प्रभावित हुए और मर्यादा के दम पर देश ने करोना की कड़ में बाही बिठा दी और देश पहले से भी ज्यादा मजबूत होकर उभरा।
मेरा हाईपोथीसिस तो अब यही कहता है कि कानून के माध्यम से न्याय को हासिल करने में बहुत ज्यादा जोर और खर्चा लगता है जिसे उठाना सबके बस की बात नहीं है और स्टांप पेपर की तर्ज पर न्याय को खरीदा ही जाता है।
मर्यादित समाज में न्याय खुली नदी की तरह सबके लिए सर्व सुलभ होता है।
ज्युरिस्प्रुडेंस वाले पेपर को मैंने कई बार पढ़ा है उसमें फ्रेंच विचारक मोंटेसक्युई द्वारा परिभाषित रूल ऑफ लॉ जिसकी जड़ें अरस्तू के विचार से भी जुड़ी हैं को समझते समझते डॉक्टराईन ऑफ मर्यादा को सैदेव मिस किया है और महसूस किया है ये सारे ज्ञानीपुरुष कहाँ जोर लगाते घूम रहे हैं रुल के पीछे जिसमें सब जगह रेजिस्टेंस ही रेजिस्टेंस है और अपने पास मर्यादा रूपी सुपर कंडक्टर के होते हुए हम सब कुछ भूले बैठें हैं।
राम चरित मानस में भी गौस्वामी तुलसी दास जी उल्लेख करते हैं
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ऑस्टिन बाबू कहते हैं “Law is the command of the Sovereign” हम और हमारे कानून की बात करने वाले नीतिकार मानस में वर्णित मर्यादा को ना देख पा रहे ना समझ पा रहे इसीलिए न्याय कहीं मिल नहीं रहा।
एक बुढ़िया बिजली के खंबे तले कुछ टोहण लाग रही थी कुछ पढ़े लिखे आये और दुखी बुढ़िया ते बूझ बैठे अक दादी के खू गया।
बुढ़िया बोली बेटा मेरा बटुआ पड़ गया सारे जुट गए और बटुआ टोहण लाग गए। जब ना मिलया तो एक बोल्या दादी कित खूया था तेरा बटुआ। दादी बोली बेटा खूया तो वहाँ था जहाँ अंधेरा है।
बालक खीझ के बोल्ले फेर आड़े क्यों टोहण लाग रही।
दादी बोली बेटा : बस आड़े ही थोड़ी रौशनी थी उड़े तो कुछ दीखण की राह नज़र नहीं आई।
बस बुढ़िया वाला योही हाल हमारा हो राख्या है मर्यादा के सूर्य रौशनी ठण्डी पड़ी है और हम सिलेबस और किताबों में कानून के लट्टू नीचे न्याय ढूंढ रहे हैं।
जिस लट्टू बिल आता है।