राजीव पुरोहित
मुग़ल जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का नाम आते ही दिमाग़ में मुगलिया सल्तनत, दीन-ए-इलाही और बीरबल तानसेन मानसिंघ टोडरमल महाराणा परताप के नाम याद आते है ।अगर ये सवाल किया जाए कि अकबर बादशाह का जन्म कहां हुआ था तो कई लोग गूगल पर इसका जवाब तलाशेंगे।
अकबर का जन्म उमरकोट में हुआ था।हुमायूं बिहार के अफ़ग़ान गवर्नर शेर ख़ान से लड़ाई हारने के बाद उमरकोट में रहने लगे थे , उस समय उस बेवतन बादशाह के साथ सिर्फ कुछ सवार और उनकी जीवन साथी हमीदा बानो थीं तब उमरकोट के राजपूत शासक परमार ( राणा ) ने हुमायु को शरण दी थी।
उमरकोट में अकबर के जन्मस्थान पर एक स्मारक बनाया गया है जिसके साथ में एक छोटा सा बाग़ भी मौजूद है.
उमरकोट का पुराना नाम अमरकोट था। उमरकोट शहर करांची से लगभग सवा तीन सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। करांची से मड़ी तक सड़क निर्माण से पहले ये शहर व्यापार का केंद्र था और इसको थार का गेटवे कहा जाता था।
इस इलाक़े में उमरकोट का क़िला राजनीति की चाबी समझा जाता था।ये राजस्थान के मारवाड़ और वादी मेहरान के संगम पर स्थित है। एक तरफ रेगिस्तान है तो दूसरी तरफ नहर के पानी से आबाद होने वाला हरा भरा इलाक़ा। उमरकोट का नाम यहाँ के एक क़िले के नाम पर है, जहां प्रेम और बहादुरी के कई किरदारों की यादें दफ़न हैं।
अमरकोट पर राजपूत ठाकुरों और बाद में सोमरा खानदान भी बादशाहत करता रहा है। सिंध के सूफी शायर अब्दुल लतीफ़ की पांच सूर्मियों या हीरोइनों में एक किरदार मारवी ने यहाँ जन्म लिया।
मारवी का संबंध थार के खानाबदोश क़ाबिले से था.
उस समय के बादशाह उमर सोमरू ने जब उसकी खूबसूरती के चर्चे सुने तो मारवी को उसके गाँव भलवा से उस वक़्त अगवा कर लिया जब वो कुँए पर पानी भरने आई थी। उमर ने मारवी को शादी की पेशकश की जो उन्होंने ठुकरा दी जिसके बाद उन्हें क़ैद किया गया।
बहुत से लालच दिए गए लेकिन उमर बादशाह कामयाब न हुआ. आख़िर में हार स्वीकार की और मारवी को बहन बना कर उसके गाँव में छोड़ आया। उमरकोट के क़िले में एक म्यूज़ियम बना हुआ है, जिसमें पुराने हथियार के अलावा मजनीक के गोले जिनसे क़िलों की दीवारों को तो जाता था।
अकबर के जन्मस्थान की वजह से यहाँ आइन-ए-अकबरी समेत उस समय के वज़ीरों के फ़ारसी में लिखे हुए दस्तावेज़ और किताबें भी नुमाइश के लिए उपलब्ध है।
इनमें हिंदू धर्म के कुछ पवित्र ग्रंथ भी हैं जिनका फ़ारसी में अनुवाद किया गया है।
हुमायूँ, हमीदा बेगम और अकबर समेत मुगलिया दरबार की कई तस्वीरें भी यहाँ मौजूद हैं। क़िले की फ़सील (क़िले की मज़बूत चार दीवारी जो दुश्मन के हमले से बचाती है) पर तोपें लगी हुई हैं जबकि बीच में एक डंडा है जिस के बारे में कुछ लोगों का मानना है कि इस पर लोगों को फांसी पर लटकाया जाता था।
यहाँ से पूरे शहर का नज़ारा आसानी से देखा जा सकता है।क़िले में दाखिल होने वाले रास्ते के ऊपर घोड़े की एक नाल का निशान मौजूद है। स्थानीय लोगों के मुताबिक़ जब राणा रतन सिंह को फांसी दी गई तो उनके घोड़े ने छलांग लगाई थी जिसके दौरान उसका एक पांव क़िले की दिवार से टकराया और इस कहानी का किरदार बन गया।
राणा रतन सिंह ने ब्रिटिश सरकार को लगान देने से मना कर दिया था और उनसे लड़ाई की जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार करके फांसी पर चढ़ा दिया गया। शहर के नज़दीक शिव महादेव का एक पुराना मंदिर है जिस पर हर साल मेला लगता है। उमरकोट के बाज़ार की गिनती सिंध के पुराने बाज़ारों में होती है।
यहाँ आज भी आज भी पत्ते वाली बेड़ी बनाई जाती है और कुछ दुकानदार महिलाओं की परम्परागत चूड़ियां बनाते हैं जिन्हें चूड़ा कहा जाता है। ये चूड़े कलाई से लेकर बाज़ू तक पहने जाते हैं, मोहन जोदड़ो से मिलने वाली नृतिका की मूर्ती के बाज़ू पर भी ऐसे ही चूड़े नज़र आते हैं जो किसी ज़माने में जानवरों की हड्डियों से बनाये जाते थे लेकिन अब ये फ़ाइन ग्लास से बनते हैं।
उमरकोट शहर के साथ ही रेगिस्तानी इलाक़ा भी शुरू हो जाता है. एक तरफ हरे भरे खेत हैं तो दूसरी तरफ़ टीलों का सिलसिला है। भारत जाने वाली ट्रेन उमरकोट ज़िले के कई शहरों से गुज़रकर खोखरापार बॉर्डर पार करती है।
ये पुराना रूट है, हिन्दुस्तान के बंटवारे के समय मेहदी हसन, मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी और डॉक्टर मुबारक अली समेत कई घराने इस बॉर्डर को पार कर के पकिस्तान की सीमा में दाख़िल हुए थे।