विषय से जुड़ाव
साल 1997 में हरियाणा कृषि विश्विधालय में फ़ूड साइंस एंड टेक्नोलॉजी विषय के दूसरे बैच में मेरा एडमिशन हुआ था और मैं बहुत उत्साहित था विशेषकर विश्वविधालय के विशाल प्रांगण को देख कर और नेहरु लाईब्रेरी को पा कर इतनी विशाल और समृद्ध लाईब्रेरी मैंने पहले कभी देखी नही थी।
पहला साल बड़े चाव चाव में बीता और फ़ूड केमिस्ट्री , फ़ूड माईक्रोबायोलोजी आदि विषयों ने मन में रोमांच भी पैदा किया और दिमाग के नये दरवाजे भी खोले मैं चूँकि अपने कोर्स की किताबें कम पढता था और अन्य विषयों में मेरी बहुत रूचि रहती थी। मेरी रूचि आयुर्वेद में हो गयी थी और हालांकि आयुर्वेद का कोई कोर्स हमारे विश्वविधालय में नही था लेकिन लाईब्रेरी में किताबें अवश्य थी मैंने वात: पित्त और कफ का सिद्दांत सीख लिया।
उधर दूसरे साल में हमने एक कोर्स पढ़ा जिसका नाम था Food Fad and Fallacies इस कोर्स में जिसे अंधविश्वास बताया जा रहा था वो आयुर्वेद में सिद्दांत था । मेरे मन में तूफ़ान खड़ा हो गया और मैं गुरुजनों के साथ चर्चा की दिशा में चल पड़ा और जल्द ही मैं समझ गया कि चर्चा से कुछ निकलेगा नही और गहरा उतरना पड़ेगा।
आयुर्वेद कह रहा था कि यदि किसी व्यक्ति का पित्त बढा हुआ हो और वो ऐसा भोजन खाए जो पित्त को बढाता हो तो वो जल्द ही बीमार हो जाएगा लेकिन इस बात को हमारे कोर्स में अंधविश्वास बताया जा रहा था ।
आगे हमने और कोर्सेज पढ़े जिनमें बताया गया कि कैसे जानवरों की हड्डियों से जिलेटिन बनाया जाता है और फिर उस जिलेटिन का उपयोग जैम जैली और टॉफी आदि बनाने में किया जाता है बस जैसे जैसे कोर्स आगे बढ़ता चला गया तो मेरी इस विषय में पूरी तरह से अरुचि हो गयी और मैंने यह तो तय कर लिया कि फ़ूड इंडस्ट्री में तो नौकरी नही करनी है । लेकिन मैं करूंगा क्या यह मुझे क्लियर नही था और मेरे मन बैचेन बिलकुल नही था क्यूंकि मुझे एक यकीन सा था कि कुछ ना कुछ ठीक ठाक सा जीवन में मैं कर ही लूंगा ।
आखिरी सेमेस्टर में मेरी मुलाकात हमारे विश्विधालय में आये एक गेस्ट फैकल्टी डॉ एन.अरुणाचलम जी से हुई जिन्हें इंडियन कौंसिल ऑफ़ एग्रीकल्चर रिसर्च की ओर से आर्गेनिक फार्मिंग विषय पर जागरूकता फैलाने के लिए देश भर के विश्वविधालयों में लेक्चर देने के लिए भेजा गया था।
जब मैंने आर्गेनिक फार्मिंग विषय के बारे में सुना तो मुझे लगा कि यह एक दिशा है जिसमें काम किया जा सकता है । मैंने डॉ अरुणाचलम के साथ अलग से मीटिंग की और अपनी दुविधा के बारे में बताया उन्होंने मुझे कहा कि उन्हें सिरसा में एक आर्गेनिक फार्म की विजिट करनी है और तुम मेरे साथ चलो और मेरी लोकल भाषा को समझने की समस्या भी हल हो जाएगी।
हम अगले दिन ट्रेन से सिरसा पहुंचे तो रसूलपुर थेडी गाँव में स्थित ग्रेवाल आर्गेनिक फार्म से मेनेजर तुफैल खां हमें लेने के लिए आये हुए थे और उनके फ़ार्म पर पहुँच कर मुझे पता चला कि दिल्ली में कोई इंडियन आर्गेनिक फ़ूड के नाम से एक कम्पनी है जो भारत में आर्गेनिक फ़ूड उगा कर जर्मनी को एक्सपोर्ट करती है। उसी वक़्त मेरे मन में यह बात बैठ गयी के मुझे कैसे भी इस कम्पनी में ही अपने करियर की शुरुआत करनी है।
पहली नौकरी
एक अनजान कम्पनी में मैं कैसे गया वो अनुभव भी बड़ा रोचक है और इस लिंक पर मौजूद है, खैर 7 मार्च 2000 को मुझे डिग्री मिली और मैं 10 अप्रैल 2000 को इंडियन आर्गेनिक फ़ूड में एग्जीक्यूटिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट हो गया और मुझे ज्जिम्मेदारी दी गयी के उत्तर भारत में फैले प्रोजेक्ट्स का जर्मनी की आर्गेनिक सर्टिफिकेशन बॉडी से आर्गेनिक सर्टिफिकेशन कराना ।
मैं कम्पनी के खर्चे पर कम्पनी से पहले से ही जुड़े किसानों के खेतों पर घूमने लगा और किसानों से सीखने लगा मैंने यह पाया कि किसानों के पास कोई जहर रहित खेती की टेक्नोलॉजी नही है लेकिन हरेक किसान अपनी सूझ बूझ और स्थानीय आविष्कारों की मदद से आगे बढ़ रहा है ।
मैंने किसानों से सीखे हुए ज्ञान को एक डायरी में नोट करना शुरू किया और धीरे धीरे मेरे पास जहररहित खेती के अनेकों अनुभव इक्कठे हो गए और मैं नई नई जगह जाता तो मुझे किसान जब समस्याएँ बताते तो मैं अपने सीखे हुए अनुभव उन्हें बता देता और मैंने किस से यह अनुभव सीखा है, उसका नाम भी मैं बता देता था। किसान एक मिनट में कन्विंस हो जाते थे क्यूंकि समस्या का हल एक दम व्यवहारिक होता था और धीरे धीरे मेरा आत्मविश्वास बढ़ता ही चला गया।
आर्गेनिक फार्मिंग के चमत्कार के दर्शन
एक दिन मैं सिरसा जिले के रसूलपुर थेडी गाँव में स्थित ग्रेवाल आर्गेनिक फार्म पर दफ्तर के काम से गया हुआ था और वहां मुझे सरदार हरपाल सिंह ग्रेवाल जी मिल गये जिनके साथ उनके आर्गेनिक फार्मिंग के अनुभवों पर चर्चा चल पड़ी तो उन्होंने मुझे एक चैलंज दिया कि मेरे फ़ार्म के स्टाफ के साथ जाओ और 100 एकड़ क्षेत्र में जैविक तरीके से गेहूं लगी हुई है आप उसमें से मुझे गुल्ली डंडा (जो एक खरपतवार होता है) को ढूंढ कर दिखा दो।
उनदिनों गुल्ली डंडे का बहुत शोर पड़ा हुआ था और वो किसी भी जहर से काबू में नही आ रहा था और अब 21 सालों के बाद जो स्थिति हैं उसमें किसान जहर डाल डाल कर थक चुके हैं लेकिन गुल्ली डंडे का कोई हल आज तक उनके पास नही है।
मैं 100 एकड़ गेहूं के खेतों में फिर गया दोपहर से शाम हो गयी हम बाईक पर एक खेत से दूसरे खेत में घूमते रहे लेकिन मुझे किसी भी खेत में गुल्ली डंडा खरपतवार का एक भी पौधा नहीं मिला मैं सचमुच बहुत ज्यादा हैरान था रात को डिनर में हरपाल सिंह ग्रेवाल जी से दोबारा मुलाकात हुई और मैंने उनकी युक्ति तरीके और समझ को सुना तो मैं पूरी तरह से कन्विंस हो गया।
मैंने पहली बार यह सीखा की किस तरह मल्टीनेशनल और हमारी स्थानीय जहर बनाने वाली कम्पनियां खुद समस्या पैदा कर रही हैं और फिर उनके समाधान के लिए जहर बेच रही हैं जिससे समस्याएँ हल होने की बजाए और अधिक काम्प्लेक्स होती जा रही हैं।
इंडियन आर्गेनिक फ़ूड में मैंने खेती करना और सूझबूझ से जीवन जीना जैविक खेती के धुरंधर किसानों से सीखा।
नेशनल इन्नोवेशन फाउंडेशन से जुड़ाव
साल 2000 के फायनेंस बजट में एक विलक्षण घटना घटी थी वो थी नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के गठन की घोषणा भारत सरकार ने एक ऐसा संगठन बनाया था जिसका उद्देश्य देश भर के गाँवों में रहने वाले किसानों पशुपालकों आदिवासियों के पास मौजूद देसी ज्ञान और उनके द्वारा तृणमूल स्तर पर किये गये आविष्कारों , परम्परागत ज्ञान को खोज कर निकालना और उसका अभिलेखन करना और उसे नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन को भेजना ताकि अच्छे उदहारणों को सम्मानित किया जा सके।
उस समय भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ ऐ.पी.जे. अब्दुल कलाम जी ने इस कार्य में बहुत अधिक रूचि दिखाई और हर वर्ष को नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन की तरफ से आविष्कारकों और परम्परागत ज्ञानधारकों को सम्मानित किया करते थे और उन्होंने एक और कार्यक्रम चलाया जिसके तहत आविष्कारकों को 15 दिनों के लिए राष्ट्रपति भवन में रहने के लिए आमंत्रित किया जाता था और उनकी मुलाकात देश विदेश के बड़े बड़े वैज्ञानिकों से कराई जाती थी ।
मुझे इस विभाग में जुड़ने का मौक़ा मिल गया और मैने इंडियन आर्गेनिक फ़ूड की नौकरी को छोड़ कर आविष्कारकों और परम्परगत ज्ञान धारकों की खोज , दस्तावेजीकरण और अभिलेखन के काम में जुटने का मन बनाया मैंने साल 2002 से 2007 तक नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन में काम किया और लगभग 4500 आविष्कारकों की खोज की जिसमें से 21 आविष्कारकों को नेशनल अवार्ड्स मिले और मैंने पारम्परिक खाद्य विज्ञान, जड़ी बूटी की पहचान उसके उपयोग आदि कुछ सीखा।
हैफैड आर्गेनिक फार्मिंग प्रोजेक्ट से जुड़ाव
साल 2007 में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन और हैफेड पंचकुला के मध्य एक MoU बाबत चर्चा शुरू हुई और मुझे इस काम की जिम्मेदारी दी गयी वो MoU तो साइन नही हुआ लेकिन मुझे हैफ़ेड के आर्गेनिक फार्मिंग और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग प्रोजेक्टस के बारे में पता चला और मेरा मन हरियाणा में रह कर ही काम करने का बन गया और थोड़ी बहुत फॉर्मेलिटी के बाद मैं वापिस आर्गेनिक फार्मिंग के फील्ड में आ गया इस बार मेरे पास काफी सारा व्यवाहरिक ज्ञान और आत्मविश्वास था और मैं सीधे किसानों के बीच में काम करने लगा।
यहाँ चैलेंजस अलग थे यह एक कोआपरेटिव महकमा था और मुझे यहाँ एक नया चैलेन्ज मिला मुझे सीनियर मैनेजमेंट के द्वारा कहा गया कि हम आपकी कामयाबी इस बात से नही नापेंगे कि कितने किसानों ने कॉन्ट्रैक्ट साईन किया हम आपकी कामयाबी इस बात से नापेंगे कि कितने किसानों से अपनी फसल वापिस हैफेड को ला कर बेची।
मैंने अपने काम के साथ साथ किसानों से पूछना शुरू किया कि आप लोग अपनी फसल हैफेड को क्यों नही बेचते हो लगभग सभी किसानों से एक बात कही कि हमें यह नही पता होता कि हमें फसल कब बेचनी होती है ? कहाँ बेचनी होती है ? किसको बेचनी होती है और किस भाव में बेचनी होती है ?
मैं समझ गया कि एक इनफार्मेशन गैप है और कुछ नही मैंने एक नियम बनाया कि हम हरेक किसान का फोन नम्बर नोट करेंगे और फसल कटाई के दिनों में हर रोज शाम को सात बजे से साढ़े सात बजे के बीच में हम आपको एक एस.एम.एस. सन्देश भेजेंगे जिसमें कल का रेट और आपके नज़दीक कौन खरीदार है , यदि वो नही खरीदता तो आपने कहाँ बात करनी है आदि इसका नतीजा यह हुआ कि 650 टन बामसती की खरीद हो गयी और मैं हैफेड में अच्छे से जम गया ।
यहाँ साल 2013 तक मैं काम करता रहा और मैंने आर्गेनिक फार्मिंग , सर्टिफिकेशन , कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग, प्रोसेसिंग, पैकेजिंग और मार्केटिंग आदि विषयों में व्यवहारिक अनुभव लिय।
अन्तराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ कार्यानुभव
साल 2013 में मुझे अन्तराष्ट्रीय मक्का एवं गेहूं अनुसन्धान संस्थान की परियोजना में काम करने का अवसर मिला और उसी प्रोजेक्ट में मैंने मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के साथ भी प्रोजेक्ट किया साल 2014 -15 में मुझे इंग्लैंड की ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में स्थित संस्था कैब इंटरनेशनल में प्रोजेक्ट लीड करने का अवसर मिला जिसमें भारत के आठ राज्यों में तीन लाख किसानों का बायोडाटा तैयार करना था जिसे मैंने अपने अनुभव से रिकार्ड समय में पूरी दक्षता के साथ पूरा किया फिर साल 2017 में मुझे इंटरनेशनल फ़ूड पालिसी रिसर्च वाशिंगटन डी.सी. के साथ काम करने का अवसर मिला।
बाजारवाद और मिलावटखोरों से मुलाकात
साल 2017 में ही मेरे पास नारसी मोन जी इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट स्टडीज से कुछ छात्र 28 दिनों की इंटर्नशिप के लिए आये और उन्होंने मुझे कुछ अलग से हट कर टॉपिक देने का निवेदन किया मेरे मन में एक बात आई कि फ़ूड प्रोसेसिंग सेक्टर की स्थिति पर शोध किया जाए मैंने इंटर्नस से कहा कि पंचकुला जीरकपुर और चंडीगढ़ में उपलब्ध सभी पोपुलर ब्रांड्स के पैक्ड मिल्क के सैंपल लिए जाएँ और उन्हें मिलावट के लिए टेस्ट कराया जाए।
दो दिन के बाद जब हमें रिपोर्ट मिली तो सबके सब चौंक गये क्यूंकि उसमें यूरिया , एडिड शुगर, फोर्मलिन और स्टार्च की मौजूदगी थी और यह हाल देश के नम्बर एक दो और तीन ब्रांड्स का था।
हमने इस कारवाई को फिर से दोहराया और इस बार हमने खुले दूध को भी शामिल किया और लेबोरेटरी बदल दी फिर दो दिनों के बाद रिजल्ट आया तो हम चौंक गये कि खुले दूध में नेचुरल मिल्क फैट थी और ब्रांडेड दूध में वेजिटेबल आयल की मौजूदगी थी ।
मेरे से मैनेजमेंट के स्टूडेंट्स ने सवाल पूछा की सर ये कौन सी वेजिटेबल होती है जिसका तेल निकलता है और जिसे दूध में मिलाया जाता है मेरे पास कोई जवाब नही था और मै सर पकड़ कर बैठ गया ।
अगले कुछ दिनों में हमने खाने के तेलों आटा और सब्जियों के सैंपल आदि लिए और जैसे जैसे नतीजे आते चले गये तो हम निराश होते चले गये क्यूंकि बाजार पूरी तरह से मुनाफ़ाखोरी पर उतरा हुआ था और कानून भी पूरी तरह से बाजार के फेवर में ही बन चुके थे ।
अब दूध का कारोबार करने के लिए गाय भैंस की आवश्यकता नही थी , सरसों का तेल बनाने के लिए सरसों की आवश्यकता नही थी सबके लिए रेडीमेड सिस्टम बाज़ार में कानूनी तौर पर उतर चुके थे कानून ने यहाँ तक भी कह दिया है कि किसान अपनी भैंस या गाय का दूध निकाल कर अपने पडोसी को भी नही बेच सकता है उसे फ़ूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री को ही बेचना पड़ेगा मुझे पता है कि आप यह बात मानेंगे नही लेकिन आप यदि थोड़ा सा शोध करेंगे तो सच्चाई जान कर आप भी मेरी तराह सफ़ेद ही हो जायेंगे ।
घर के दूध और राशन के लिये जद्दोजहद
मैंने जब यह नतीजे घर में डिस्कस किये तो हमारे हिम्मत नही हुई के हम जहरीला दूध अपने बच्चों के मुहं में डालें और हम गाडी लेकर पंचकुला के आउटस्कर्ट्स में दूध वालों की तलाश में निकले और कई सारे गौपालक मिले जो बहुत सारी गाय पाले हुए थे लेकिन उनकी समस्या यह थी कि वो घर घर दूध नही पहुंचा सकते थे और दूध बेचने वालों को एकसाथ सारा दूध बेच दिया करते थे।
फिर मैंने रायपुर रानी में दूध सप्लाई करने वालों का सिस्टम देखा तो मुझे यह जानकार बहुत दुःख हुआ कि दूध को फटने से बचाने के लिए दूध में फोर्मलिन डाल दिया जाता है और फिर उसमें काफी सारी इंजीनियरिंग की जाती है उसके बाद दूध घर घर पहुंचता है।
मैंने सप्ताह में दो दिन खुद जा कर गाय वालों से दूध लेना शुरू किया और लगातार तीन साल बस ऐसे ही चलता रहा धीरे धीर सारे राशन को सोर्स से लाने का क्रम चलता रहा।
नाबार्ड से जुडाव और किसान कम्पनियों से परिचय
साल 2007 में मैंने इवनिंग क्लासेस में एल.एल.बी की पढ़ाई शुरू कर ली थी और आगे चल कर मैंने एल.एल.एम. में जब अपना रिसर्च वर्क शुरू किया तो मेरी रूचि क्रॉप प्रोडक्शन क्लस्टर्स में थी क्यूंकि मैंने हैफेड के साथ बहुत अनुभव लिया था और मुझे कोआपरेटिव में किसानों के दुखों का काफी अनुभव था मैंने साल 2015-16 में पूरी दुनिया में प्रचलित कोआपरेटिव मॉडल्स का अध्यन किया और फार्मर्स प्रोड्यूसर कम्पनी विषय पर थीसिस लिखा।
किसानों को बड़े क्रॉप प्रोडक्शन क्लस्टर्स में संगठित करके किसान कम्पनियों में जोड़ने का निश्चय किया और इसके लिए मैंने नाबार्ड क्षेत्रिय कार्यालय चंडीगढ़ से आर्थिक सहयोग माँगा और उन्होंने मुझे 5 किसान कम्पनियों के गठन की स्वीकृति दी और साल 2016 से लेकर 2020 तक मैंने दस किसान कम्पनियों का गठन पंजाब हरियाणा हिमाचल और राजस्थान में किया जिसमें किसानों के कैपिटल इक्कठा करने और उनके प्रोड्यूस के एकत्रीकरण और प्रोसेसिंग तक के सफ़र को बड़े नज़दीक से देखा और उनको एक कामयाबी के सफर पर रवाना किया।
श्री कमल जिंदल से मुलाकात और सेफ फ़ूड नेटवर्क की परिकल्पना
साल 2019 में हर्मिटेज पार्क के शोपिंग प्लाजा में एक ऑफिस स्पेस खरीदने के सिलसिले में श्री कमल जिंदल जी कि हर्मिटेज पार्क प्रोजेक्ट के बिजनेस हेड हैं, जी से मुलाकात हुई है फिर उनसे फेसबुक के माध्यम से दोस्ती भी हो गयी मैं खाद्यविज्ञान विषय पर अपनी फाइंडिंग्स अपनी फेसबुक पोस्ट के माध्यम से शेयर करता रहता था और जो भी किसान मेरे से मिलने मेरे कार्यालय में आते थे वो कुछ न कुछ मेरे लिए ले ही आया करते थे तो मैं उसमें से कुछ न कुछ कमल जिंदल जी को भी दे आया करता था।
कई बार कमल जी ने मुझे कहा कि फ़ूड कलेक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन का कोई मॉडल बनाया जाए लेकिन मुझे बात कभी जमी नही हमारी मुलाकातें चलती रही और धीरे धीरे मेरे मन में एक विचार आ गया कि बतौर फ़ूडटेक्नोलॉजिस्ट यह एक कर्तव्य भी है कि आम जन को एजुकेशन और बेस्ट प्रोडक्ट्स उपलब्ध करवाए जाएँ।
मैंने अपने घर में सलाह की और मुझे सहयोग का आश्वासन भी मिल गया और मैंने अपना मन पक्का कर लिया और सेफ फ़ूड नेटवर्क को खड़ा करने के लिए आने वाले दिनों में हम कई तरह की एक्टिविटीज करेंगे जैसे फेस टू फेस मीटिंग्स , चर्चाएँ , फ़ूड सेफ्टी ऑडिट , ग्रुप डिसकशंस आदि ताकि एक सही कांसेप्ट का विकास हो और हरेक सदस्य की फ़ूड के बारे में गहरी समझ बने और वो अपनी प्रकृति के अनुरूप स्वस्थ जहर रहित भोजन करे और स्वस्थ जीवन जिए।
लेट्स डू इट